आजमगढ़ विवाद का अंत पर क्या पंकज त्रिपाठी की ब्रांड वैल्यू सिर्फ बहुत बड़े निर्देशक ही समझा सकते हैं

'आजमगढ़' विवाद का अंत पर क्या पंकज त्रिपाठी की ब्रांड वैल्यू सिर्फ़ बहुत बड़े निर्देशक ही समझा सकते हैं 

फिल्म 'आजमगढ़' में पंकज त्रिपाठी ने एक ऐसे मौलवी की भूमिका निभाई है जो नवयुवकों को बहला फुसलाकर कर आतंकवादी बनने के लिए प्रेरित करता है। आजमगढ़ का रहने वाला आमिर 12वी में टॉप करने के बाद किस तरह से आतंकवादी संगठन में शामिल होता है और आतंकवादी गतिविधियों में भाग लेता है, यह फिल्म में दिखाया गया है। जब फिल्म 'आजमगढ़' की होर्डिंग्स को लेकर विवाद हुआ तो फिल्म में मौलवी की भूमिका रहे पंकज त्रिपाठी ने कहा था कि इस फिल्म में उनकी भूमिका बहुत छोटी है और फिल्म में उनके सिर्फ  तीन मिनट के ही सीन हैं। और, गुरुवार को हुए फिल्म के प्रिव्यू शो में इसे देखने के बाद पंकज त्रिपाठी का यह दावा बिल्कुल ग़लत निकला।क्योंकि न सिर्फ़ “आज़मगढ़ “ फ़िल्म की कहानी उनके किरदार के चारों तरफ़ घूमती है बल्कि लगभग २३ मिनट के सीन्स किसी तरह कैमियो नहीं कहे जा सकते।
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की छवि ऐसी बनी है कि वहां का नाम सुनते ही जेहन में ऐसी तस्वीरें घूमने लगती हैं जो अक्सर आतंकवादी गतिविधियों से जुड़ी होती हैं। लेखक, निर्देशक कमलेश के मिश्र ने फिल्म के लिए विचार बिल्कुल सही उठाया है कि कुछ लोगों की वजह से किसी एक स्थान या किसी एक समुदाय के लोगों को आतंकवादी समझना गलत है। एक पढ़ा लिखा लड़का जिसका इंजीनियर बनने का सपना है, वह आतंकवादी संगठन में शामिल होकर दुनिया के बड़े बड़े आतंकवादियों को एक ही धमाके में उड़ा कर यह साबित करता है कि आजमगढ़ का रहने वाला हर युवक आतंकवादी नहीं होता है।

पूरी फिल्म की बात करें तो एक डाक्यू ड्रामा फिल्म जैसी लगती है।
फिल्म के पुरानी होने का एक दृष्टांत ये भी कि ये फिल्म साल 2008 के बाद की आतंकवादी गतिविधियों क बात नहीं करती है। उसके पहले के दशक में देश के प्रमुख शहरों में जितनी भी आतंकवादी घटनाएं हुई हैं, न्यूज चैनलों पर चलने वाले उनके फुटेज को दिखा दिखा कर एक डॉक्यू ड्रामा फिल्म को फीचर फिल्म की लंबाई देने की कोशिश की गई है। फिल्म में मूल कहानी पर ध्यान कम और टीवी पर चल रही ब्रेकिंग न्यूज पर फोकस ज्यादा है।

जहां तक फिल्म में कलाकारों के परफॉर्मेंस की बात है तो पंकज त्रिपाठी अपने चिर परिचित अंदाज में ही अभिनय करते दिखे। फिल्म में उनकी भूमिका भले ही  उनकी अन्य फ़िल्म की तुलना में छोटी है लेकिन फिल्म के लेखक -निर्देशक कमलेश मिश्रा ने उन्हें मुख्य किरदार के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। फिल्म में आमिर की भूमिका निभाने वाले अनुज शर्मा ने अपने किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय करने की कोशिश की है, बाकी कलाकारों का अभिनय सामान्य रहा है। काफी लंबे समय के बाद इस फिल्म में कव्वाली सुनने को मिली है जिसके बोल हैं 'किसकी लगी नजर' और इसे निजामी बंधुओ ने गाया है।
 
फिल्म 'आजमगढ़' की शूटिंग आजमगढ़, वाराणसी, अलीगढ़ और दिल्ली की वास्तविक लोकेशन पर की गई है। सिनेमैटोग्राफर महेंद्र प्रधान ने इन शहरों की खूबसूरती को बहुत ही अच्छे तरीके से अपने कैमरा में कैद किया है। अगर, इस फिल्म को ठीक से संपादित किया गया होता तो यह फिल्म 60 मिनट से ज्यादा नहीं होती। टीवी पर चलने वाले ब्रेकिंग न्यूज और आतंकवादी घटनाओं के फुटेज को बहुत लंबा खींचा गया है। एडिटर बिरेन ज्योति मोंटी के लिए यह किसी चुनौती से कम नहीं रहा होगा कि उन्होंने 60 मिनट की फिल्म को 90 मिनट की फीचर फिल्म बना दिया। लेकिन एक सच ये भी है कि अगर इस  फ़िल्म के अंत की बात करें तो आतंकी आकाओं को चुनौती देता उनका असली नाम ज़ाहिर कर  दिखाना और मुख्य किरदार के प्रभावी  भाव संप्रेषण और मार्मिकता देखने लायक़ है। दो फ़्लॉप फ़िल्में  देने के बाद नया -पुराना कुछ नहीं पंकज त्रिपाठी का रोल रंग जमाता है।
प्रोड्यूसर चिरंजीवी भट्ट और अंजु भट्ट ने क्या अपना निवेश इस फ़िल्म पर कर एक फ़ीचर फ़िल्म को डॉक्यूमेंटरी निर्देशक कमलेश मिश्रा पर भरोसा पंकज त्रिपाठी की ब्रांड वैल्यू के भ्रम में आकर तो नहीं किया?

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